लद्दाख के गालवान में 3-4 किलोमीटर तक प्रवेश किया है। भारत में कई लोग ऐसा सोचते हैं कि यह घटना दोनों देशों के बीच सीमा को लेकर किसी छोटी गलतफहमी के कारण हुई , लेकिन ऐसा नहीं है। यह घटना चीनी लोगों के एक बहुत बड़े साम्राज्यवादी डिजाइन का हिस्सा है, जिसे मैं इस लेख द्वारा समझाना चाहता हूँ।
1930 और 1940 के दशक में नाजी जर्मन-साम्राज्यवाद दुनिया के लिए वास्तविक खतरा था, न कि ब्रिटिश या फ्रांसीसी साम्राज्यवाद। ऐसा इसलिए था क्योंकि जर्मन साम्राज्यवाद बढ़ रहा था और विस्तार कर रहा था, और इसलिए यह आक्रामक साम्राज्यवाद था , जबकि ब्रिटिश और फ्रांसीसी साम्राज्यवाद केवल रक्षात्मक थे।
जहाँ ब्रिटिश और फ्रांसीसी केवल अपने उपनिवेशों पर कब्ज़ा बनाये रखना चाहते थे, वहां नाजियों ने भूखा भेड़िआ जैसे अन्य देशों को जीतना और गुलाम बनाना चाहा। इसलिए नाजी दुनिया के लिए वास्तविक खतरा थे।
इसी तरह, आज दुनिया के लिए खतरा अमेरिका नहीं बल्कि चीन है, क्योंकि चीन दुनिया में आक्रामक विस्तार की राह पर चल रहा है। चीन अपने विशाल उद्योग के साथ अपने सामानों के लिए बाजार में मांग बढ़ा रहा है , और अपने विशाल 3.2 ट्रिलियन डॉलर विदेशी मुद्रा रिजर्व के साथ लाभदायक निवेश के नए रास्तों की तलाश कर रहा है।
चीनी आज आक्रामक साम्राज्यवादी हैं, और दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा है। यह सच है कि नाजी जर्मनी की तरह चीन वर्तमान में सैन्य रूप से विस्तार नहीं कर रहा है , लेकिन भूखा भेड़िआ जैसे वह दुनिया के कई देशों की अर्थव्यवस्था को भेद कर, उसे घटाकर आक्रामक रूप से आर्थिक विस्तार कर रहा है।
पिछले दशक में चीनी विदेशी निवेश आसमान छू गया है। आज चीनी लगभग हर जगह हैं, एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और निश्चित रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप भी इसमें शामिल हैं। उनका बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (Belt and Road Initiative) सड़कों, रेलवे, तेल पाइपलाइनों, बिजली ग्रिड, बंदरगाहों और अन्य मूलढ़ांचा परियोजनाओं (infrastructure projects) का एक नेटवर्क है जो चीन को दुनिया से जोड़ता है।
— Markandey Katju (@mkatju) June 3, 2020
इसका उद्देश्य चीन और बाकी यूरेशिया के बीच इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स और कनेक्टिविटी में सुधार करना है ताकि वह इन देशो पर हावी हो सके। चीन का ध्यान अक्सर बंदरगाहों जैसे महत्वपूर्ण इंफ्रास्ट्रक्चर पर रहा है जैसे पाकिस्तान में ग्वादर, ग्रीस में पीरायस और श्रीलंका में हंबनटोटा, जिसका उद्देश्य इन देशों में एक रणनीतिक पायदान हासिल करना है।
जिस कीमत पर अमेरिकी या यूरोपीय निर्माता सामान बेच सकते हैं (अपनी उच्च श्रम लागत को देखते हुए), उससे आधी कीमत पर सामान बेचकर, चीनियों ने कई अमेरिकी और यूरोपीय उद्योगों को नष्ट कर दिया है। अब चीनी अविकसित देशों में बाजारों और कच्चे माल बहुत कम दामों पर माल डंप करके कब्जा कर रहे हैं ताकि स्थानीय उत्पाद को अप्रतिस्पर्धिक बनाया जा सके। उदाहरण के लिए पाकिस्तान सस्ते चीनी सामानों से भरा पड़ा है।
विदेशी बाजारों पर कब्जा करते समय, चीनी उच्च टैरिफ द्वारा सावधानीपूर्वक अपनी रक्षा करते हैं। इस बात का श्रेय राष्ट्रपति ट्रम्प को देना चाहिए कि उन्होंने चीनीयों के इस झांसे को सबके सामने रखा , और चीन को स्पष्ट रूप से कहा कि यह नहीं चलेगा।
चीन में ऑटोमोबाइल के आयात पर 25% टैरिफ नहीं हो सकता है जब यूएसए में कारों के आयात के लिए केवल 2.5% टैरिफ लागू होता है। ट्रम्प ने कई चीनी सामानों पर टैरिफ लगाया है और भविष्य में और अधिक की घोषणा की है। इसके लिए, चीन ने प्रतिशोधी टैरिफ की घोषणा की, लेकिन इससे अमेरिकियों को थोड़ा नुकसान होगा।
यह सर्वविदित है कि चीनीयों में कोई व्यावसायिक नैतिकता नहीं है, और यही कारण है कि कई अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियां चीन मुख्य-भूमि से चीनीयों को काम पर लेने के लिए हिचकते हैं क्योंकि वे अक्सर औद्योगिक रहस्यों की जासूसी करते हैं।
अब मैं भारत के साथ चीन के आर्थिक संबंधों का उल्लेख करना चाहूंगा।
जैसा कि सब जानते हैं , भारत 1947 तक एक ब्रितिश उपनिवेश था, और ब्रिटिश नीति भारत को औद्योगीकरण से दूर रखने की थी। हालाँकि, आजादी के बाद भारत में कुछ हद तक औद्योगिकीकरण हुआ और हमने उन चीज़ों का उत्पादन शुरू किया, जिन्हे हमें पहले इम्पोर्ट करना पड़ता था।
अब कुछ हद तक चीनियों ने हमारे घरेलु बाजार में प्रवेश कर, अपनी जगह बना ली है। द इकोनॉमिक टाइम्स में 12.12.2017 को प्रकाशित ‘How Chinese companies are beating India in its own backyard ‘ शीर्षक से एक लेख कुछ दिलचस्प विवरण देता है।
भारत-चीनी व्यापार चीन के पक्ष में ज़्यादा भारी है। चीन को भारतीय निर्यात(exports) 16 अरब डॉलर का है, मुख्य रूप से कच्चे माल का। लेकिन चीन से भारत का आयात 68 बिलियन डॉलर का है, जिसमें मुख्य रूप से मूल्य वर्धित सामान (value-added goods) जैसे मोबाइल फोन, प्लास्टिक, इलेक्ट्रिकल सामान, मशीनरी और इन चीज़ों को बनाने में लगने वाले पुर्ज़े हैं। यह एक उपनिवेश और साम्राज्यवादी देश के बीच का विशिष्ट संबंध है।
चीनी कंपनियां आक्रामक मूल्य निर्धारण, स्टेट सब्सिडी, संरक्षणवादी नीतियों और सस्ते वित्तपोषण का उपयोग करती हैं। कुछ क्षेत्रों में चीनी कंपनियों का भारतीय बाजार पर वर्चस्व है। दूरसंचार क्षेत्र में, 51% चीनी ने कब्जा कर लिया है। भारतीय घरों में चीनी सामानों की भरमार है। फिटिंग, लैंपशेड, ट्यूबलाइट आदि।
अंत में , मैं भारत सरकार और अन्य लोगों से अपील करता हूं कि मैंने जो भी कहा है उस पर गंभीरता से विचार करें और चीनी साम्राज्यवाद का विरोध करना शुरू करें।
इस खतरे को नजरअंदाज करना एक शुतुरमुर्ग के बर्ताव के जैसा होगा , जैसे कि नेविल चेम्बरलेन जो सोचते रहे की हिटलर से कोई खतरा नहीं है पर जब उन्हे यह एहसास हुआ तब तक काफी देर हो चुकी थी। सीमा पर आक्रामक चीनी चालों का विरोध करने के अलावा, भारतीय सरकार को सभी चीनी कंपनियों को भारत से निष्कासित कर देना चाहिए और भारतीय बाजार में चीनी वस्तुओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।
भारतीय सरकार को चीनियों का कोई तुष्टिकरण नहीं करना चाहिए जिस प्रकार नेविल चैंबरलेन ने हिटलर के लिए किया था बल्कि चर्चिल की तरह साहसपूर्वक उनका सामना करना चाहिए । तुष्टिकरण केवल हमलावर की भूख को बढ़ाता है।