इजराइल या फ़लस्तीनियों में से किसी के पक्ष में कुछ क्यों नहीं बोल रहा भारत, ये है वजह ?

संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टीएस तिरुमूर्ति ने 11 मई को सुरक्षा परिषद की बैठक में पूर्वी यरू’शलम की घ’टनाओं के बारे में मध्य- पूर्व पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की चर्चा के दौरान कहा था कि दोनों पक्षों को ज़मीन पर यथास्थिति बदलने से बचना चाहिए.ग़ज़ा से रॉ’केट दा’गे जाने की निं’दा करते हुए तिरुमूर्ति ने कहा कि सभी पक्षों से संयम बरतने की ज़रुरत है और सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव नंबर 2334 का पालन किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि शांति वार्ता फिर से शुरू करने की ज़रुरत है.

12 मई को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद परामर्श के दौरान तिरुमूर्ति ने कहा कि भारत हिंसा की निंदा करता है, विशेषकर ग़ज़ा से रॉ’केट ह’मले की. उन्होंने कहा कि तत्काल हिं’सा ख़’त्म करने और त’नाव घ’टाने की ज़रुरत है.

प्रस्ताव नंबर 2334

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने 2016 में प्रस्ताव नंबर 2334 को पारित किया था जिसमें कहा गया था कि पूर्वी यरु’शलम सहित 1967 के बाद से कब्जे वाले फ़लस्तीनी क्षेत्र में इसराइल की बस्तियों की स्थापना की कोई कानू’नी वै’धता नहीं थी. इस प्रस्ताव में ये भी कहा गया था कि अंतरराष्ट्रीय कानू’न के तहत इन बस्तियों की स्थापना एक प्रमुख उल्लंघन था.

इतिहास पर नज़र डालें तो जहाँ भारत की फ़लस्तीनी लोगों के प्रति नीति सहानुभूतिपूर्ण रही है, वहीं पिछले कुछ सालों से इसराइल से भी उसकी नज़दीकियां काफी हद तक बढ़ गई हैं.तो ज़ाहिर है कि इसराइल और फ़लस्तीनियों के बीच चल रहा हिं’सा का दौर भारत के लिए एक असमंजस की स्थिति पैदा करता है.

भारत ने 17 सितंबर, 1950 को इसराइल को मान्यता दी. इसके बाद यहूदी एजेंसी ने बॉम्बे में एक इमीग्रेशन कार्यालय की स्थापना की. इसे बाद में एक व्यापार कार्यालय और फिर बाद में इसे वाणिज्य दूतावास में बदल दिया गया. 1992 में पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित होने पर दोनों देशों में दूतावास खोले गए.

1992 में संबंधों में तरक्की होने के बाद से दोनों देशों के बीच रक्षा और कृषि के क्षेत्र में सहयोग बढ़ा. पिछले कुछ सालों में कई क्षेत्रों दोनों देशों के बीच सहयोग बढ़ा है.जुलाई 2017 में नरेंद्र मोदी 70 वर्षों में इसराइल का दौरा करने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री बने. इसराइली प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतन्याहू ने मोदी की यात्रा को शानदार बताया था. दोनों देशों ने अंतरिक्ष, जल प्रबंधन, ऊर्जा और कृषि जैसे प्रमुख क्षेत्रों में सात समझौतों पर हस्ताक्षर किए थे.

नेतन्याहू जनवरी 2018 में भारत आए. इस दौरान साइबर सुरक्षा, तेल और गैस सहयोग, फिल्म सह-निर्माण और वायु परिवहन पर सरकारी समझौते और पांच अन्य अर्ध-सरकारी समझौतों पर दस्तख़त किए गए.इन यात्राओं से पहले, तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 2015 में इसराइल का दौरा किया था जबकि इसराइल के राष्ट्रपति रूबेन रिवलिन 2016 में भारत के दौरे पर आए थे.

फ़लस्तीनी मु’द्दे का समर्थ’न

भारत के विदेश मंत्रालय के अनुसार फ़लस्तीनी मुद्दे पर भारत का समर्थन देश की विदेश नीति का एक अभिन्न अंग है. 1974 में भारत फ़लस्तीन मुक्ति संगठन को फ़लस्तीनी लोगों के एकमात्र और वै’ध प्रतिनिधि के रूप में मान्यता देने वाला पहला गै’र-अरब देश बना था.1988 में भारत फ़लस्तीनी राष्ट्र को मान्यता देने वाले पहले देशों में से एक बन गया. 1996 में भारत ने ग़ज़ा में अपना प्रतिनिधि कार्यालय खोला जिसे बाद में 2003 में रामल्ला में स्थानांतरित कर दिया गया था.

अनेक बहुपक्षीय मंचों पर भारत ने फ़लस्तीनी मु’द्दे को समर्थन देने में सक्रिय भूमिका निभाई है. संयुक्त राष्ट्र महासभा के 53वें सत्र के दौरान भारत ने फ़लस्तीनियों के आत्मनिर्णय के अधिकार पर मसौदा प्रस्ताव को न केवल सह-प्रायोजित किया बल्कि इसके पक्ष में मतदान भी किया.भारत ने अक्टूबर 2003 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के उस प्रस्ताव का भी समर्थन किया जिसमें इसराइल के विभाजन की दीवार बनाने के फैसले का विरोध किया गया था. 2011 में भारत ने फ़लस्तीन के यूनेस्को के पूर्ण सदस्य बनने के पक्ष में मतदान किया.

2012 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के उस प्रस्ताव को सह-प्रायोजित किया जिसमें फ़लस्तीन को संयुक्त राष्ट्र में मतदान के अधिकार के बिना “नॉन-मेंबर आब्जर्वर स्टेट” बनाने की बात थी. भारत ने इस प्रस्ताव के पक्ष में वो’ट भी किया. सितंबर 2015 में भारत ने फ़लस्तीनी ध्वज को संयुक्त राष्ट्र के परिसर में स्थापित करने का भी समर्थन किया.

भारत और फ़लस्तीनी प्रशासन के बीच नियमित रूप से उच्चस्तरीय द्विपक्षीय यात्राएं होती रही हैं.

अंतर्राष्ट्रीय और द्विपक्षीय स्तर पर मजबूत राजनीतिक समर्थन के अलावा भारत ने फ़लस्तीनियों को कई तरह की आर्थिक सहायता दी है. भारत सरकार ने ग़ज़ा शहर में अल अज़हर विश्वविद्यालय में जवाहरलाल नेहरू पुस्तकालय और ग़ज़ा के दिर अल-बलाह में फ़लस्तीन तकनीकी कॉलेज में महात्मा गांधी पुस्तकालय सहित छात्र गतिविधि केंद्र बनाने में भी मदद की है.

इनके अलावा कई प्रोजेक्ट्स बनाने में भारत फ़लस्तीनियों की मदद कर रहा है.

फरवरी 2018 में नरेंद्र मोदी फ़लस्तीनी क्षेत्र में जाने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने. तब मोदी ने कहा था कि उन्होंने फ़लस्तीनी प्रशासन के प्रमुख महमूद अब्बास को आश्वस्त किया है कि भारत फ़लस्तीनी लोगों के हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है. मोदी ने कहा था, “भारत फ़लस्तीनी क्षेत्र को एक संप्रभु, स्वतंत्र राष्ट्र बनने की उम्मीद करता है जो शांति के माहौ’ल में रहे.”

भारत का असमं’जस

प्रोफेसर हर्ष वी पंत नई दिल्ली स्थित ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में स्ट्रैटिजिक स्टडीज़ प्रोग्राम के प्रमुख हैं. वे कहते हैं कि भारत सार्वजनिक रूप से हमेशा फ़लस्तीनियों का समर्थक रहा है लेकिन पर्दे के पीछे इसराइल के साथ सम्बन्ध हमेशा अच्छे रहे.

वे कहते हैं, “इसराइल और भारत के बीच डिफेंस और इंटेलिजेंस के क्षेत्रों में पिछले दरवाज़े से सहयोग हमेशा से रहा है, चाहे कोई भी सरकार रही हो. लेकिन आधिकारिक मान्यता देने में भारत को अ’ड़चन ये रहती थी कि अगर वो खुलकर इसराइल का साथ देगा तो उसके क्या परिणाम होंगे और भारत का मु’स्लिम समुदाय इस बारे में क्या कहेगा और उसके क्या उलझाव हो सकते हैं.

“पंत के अनुसार 1992 के बाद भारत ने इसराइल के साथ अपने रिश्तों को सार्वजानिक तौर पर आगे बढ़ाया जब पीवी नरसिम्ह राव की सरकार ने इसराइल के साथ राजनयिक रिश्तों को औपचारिक किया था.

पंत का कहना है कि हालाँकि नरेंद्र मोदी इसराइल जाने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री बने लेकिन जहाँ तक दोनों देशों के बीच रिश्तों का सवाल था, वो रिश्ता कई वर्षों से था. वे कहते हैं, “जैसे कारगिल युद्ध के दौरान इसराइल ने भारत के साथ ज़रूरी जानकारियां साझा कीं और इंटेलिजेंस शेयरिंग भी. भारत को इसराइल से रक्षा उपकरण भी मिले तो इसराइल लंबे समय से हमारी सुरक्षा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है.”

रक्षा विशेषज्ञ सी उदय भास्कर भारतीय नौसेना के सेवानिवृत कमोडोर हैं. वे आजकल दिल्ली स्थित सोसाइटी फॉर पॉलिसी स्टडीज़ के निदेशक हैं.इसराइल और फ़लस्तीनियों के बीच जारी हिं’सा और इस सबमें भारत की स्थिति पर वे कहते हैं, “यह बहुत नाज़ुक़ स्थिति है. भारत के लिए ये टाइट रोप वाक जैसा है. परंपरागत रूप से, भारत ने फ़लस्तीनियों के मु’द्दे का समर्थन किया है. भारत ने जब गुट निरपेक्ष सम्मेलन किया था तो यासेर अराफ़ात दिल्ली आए थे और उनका स्वागत हुआ था. लेकिन साथ ही नरसिम्ह राव के कार्यकाल के दौरान हमने इसराइल के साथ औपचारिक संबंध स्थापित किए. भारत की कोशिश यही है कि फलस्तीनियों के मु’द्दे और इसराइल के साथ उसके द्विपक्षीय संबंधों के बीच संतुलन बनाकर रखा जाए.”

पंत का मानना है कि भारत की तरफ से राजनितिक संतुलन बनाए रखने की कोशिश हमेशा की गई है. वे कहते हैं, “मोदी इसराइल गए लेकिन उसके बाद उन्होंने फ़लस्तीनी क्षेत्र की भी यात्रा की. अरब देशों के साथ जिस तरह से इस सरकार ने रिश्ते बढ़ाए हैं, वो काफी महत्वपूर्ण है. नरसिम्ह राव से लेकर अब तक हर सरकार ने संतुलन बनाने की कोशिश की है. लेकिन मोदी सरकार ने इसराइल का सार्वजनिक तौर पर जितना राजनयिक समर्थन किया, उतना पिछली सरकारों ने नहीं किया.”पंत के अनुसार भारत ज़मीनी तौर पर इस संघर्ष पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकता है और इसलिए भारत शांतिपूर्ण समाधान की अपील करते हुए रचनात्मक रुख ही अपना सकता है.

वे कहते हैं, “भारत के लिए इससे ज़्यादा कुछ कहने की संभावना ही नहीं है. वहां जो हो रहा है वो एक ऐतिहासिक समस्या है. दोनों पक्षों की अपनी-अपनी ज़रूरतें हैं. दोनों ही पक्ष हिं’सा का इस्तेमाल करते हैं.”

भारत इसराइल संबंध

भारत इसराइल से महत्वपूर्ण रक्षा टेक्नॉलोजी का आयात करता रहा है. साथ ही दोनों देशों की सेनाओं के बीच भी नियमित आदान-प्रदान होता है. सुरक्षा मु’द्दों पर दोनों देशों साथ काम करते हैं. दोनों देशों के बीच आतं’कवाद विरो’धी संयुक्त कार्यदल भी है.फरवरी 2014 में में भी भारत और इसराइल ने तीन महत्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर किए थे. ये समझौते आप’राधिक मा’मलों में आपसी कानू’नी सहायता, होमलैंड सुरक्षा और खुफिया जानकारी के सुरक्षित रखने से जुड़े थे.साथ ही, इसराइल में भारतीय मूल के लगभग 85,000 यहूदी हैं जो सभी इसराइली पासपोर्ट धारक हैं. 1950 और 1960 के दशकों में भारत से बहुत से लोग इसराइल चले गए थे. इनमें से ज़्यादातर लोग महाराष्ट्र से गए और बाकी केरल, पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर राज्यों से.