बिहार चुनाव: तेजस्वी यादव के लिए हार में भी छिपी है संभावना? जाने कैसे दे सकते है पछाड़ी

तेजस्वी की कुछ रणनीतियाँ उनके ख़िला’फ़ भी गई हैं. इन सबके बीच अब उनकी अनुभवहीनता की नहीं, क’ड़ी मेहनत के बूते विकसित संभावनाओं वाली नेतृत्व-क्षमता की चर्चा हो रही है. चुनाव परिणाम भी यही बताते हैं कि ‘महागठबंधन’ को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के सामने मज़बूती से खड़ा कर देने में उन्होंने उल्लेखनीय भूमिका निभाई है.

राज्य की सत्ता पर डेढ़ दशक से क़’ब्ज़ा बनाए हुए नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के सामने सबसे बड़े दल के रूप में आरजेडी को जगह दिलाना कोई आसान काम नहीं था.

वो भी तब, जब उनके पिता और आरजेडी के सर्वेसर्वा लालू यादव जे’ल में हों और परि’वारवाद से लेकर ‘जं’ग’लराज’ तक के ढेर सारे आ’रो’पों से उन्हें जू’झना पड़ रहा हो. ऐसी सूरत में 31 साल के तेजस्वी की सराहना उनके सियासी विरो’धी भी खुलकर न सही, मन-ही-मन ज़रूर कर रहे होंगे. तेजस्वी ने मो’ड़ा चुनाव अभियान का रूख़

सबसे बड़ी बात कि जा’ति’वादी, सांप्र’दा’यिक और आप’रा’धिक चरित्र के राजनीतिक माहौल में ल’ड़े जाने वाले चुनाव को जन सरोकार से जुड़े मुद्दों की तरफ़ मो’ड़ने में तेजस्वी पूरी कोशिश करते दिखे.

इस कोशिश में वह कम-से-कम इस हद तक तो कामयाब ज़रूर हुए कि बेरोज़गारी, शिक्षा/चिकित्सा-व्यवस्था की ब’दहाली, श्र’मिक-पलायन और बढ़ते भ्र’ष्टाचार के सवालों से यहाँ का स’त्ताधारी गठबंधन बुरी तरह घिरा हुआ नज़र आया.

बार-बार पुराने लालू-राबड़ी राज के क’थित जं’ग’ल’राज और उसके ‘युव’राज’ की ‘रट लगाने में भाषाई म’र्यादा की सीमाएँ लां’घी गई. व्यक्तिगत आक्षेप करने में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तो आगे रहे ही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी तेजस्वी पर हम’लावर हुए. क्या होगी आगे की राह

अब सवाल उठता है कि राज्य में सत्ता-शीर्ष तक पहुँचने से कुछ ही क़दम दूर रह जाने वाले इस युवा नेता की दशा-दिशा क्या होने वाली है. इसका जवाब ज़ाहिर तौर पर यही है कि तेजस्वी यादव अपनी पार्टी को बिहार की राजनीति में आगे बढ़ाने को तैयार दिख रहे हैं.

लालू यादव ने पिछले विधानसभा चुनाव में जेडीयू नेता नीतीश कुमार के साथ एक मज़बूत गठबंधन में रहते हुए 80 सीटों के साथ आरजेडी को सत्ता तक पहुँचाया था. तब सियासी हालात उनके बहुत अनु’कूल इसलिए भी बने, क्योंकि नीतीश कुमार के तैयार किए हुए वोट बैंक भी उनके काम आ रहे थे.

अब ऐसा भी नहीं लग रहा कि लालू यादव के सहारे के बिना तेजस्वी अपनी सियासत को मज़बूती दे पाने में समर्थ नहीं हैं. अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझते हुए उन्होंने यहाँ सत्ताधारी गठबंधन को अकेले अपनी मेहनत और सूझबूझ से कड़ी टक्कर दी है. ये यही दिखाता है कि आगे भी बिहार में बीजेपी की मौजूदा बढ़त को तेजस्वी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनता दल से ही चु’नौ’ती मिल सकती है.

अपने ‘महागठबंधन’ से जुड़े वामदलों को जिस कुशलता के साथ तेजस्वी ने जोड़ कर रखा, उसका चुनाव में आरजेडी और वामदल, दोनों को लाभ हुआ. इसलिए ऐसा लगता है कि आगे भी यह रिश्ता दोनों निभाना चाहेंगे. लेकिन कांग्रेस और आरजेडी के रिश्ते में ज़रूर दरार आई है.

एक बात और ग़ौरतलब है कि लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के अध्यक्ष चिराग़ पासवान अगर और उभर कर बिहार की राजनीति में असरदार बने, तो यह तेजस्वी के लिए भी एक चु’नौतीपूर्ण स्थिति होगी. ख़ासकर इसलिए, क्योंकि द’लि’त वर्ग से आरजेडी में कोई असरदार नेतृत्व अभी भी नहीं है.

दूसरी बात कि चिराग़ भी युवा हैं और उन्होंने बिहार में अपनी राजनीतिक ज़मीन को द’लि’त-दायरे से निकाल कर विस्तार देने वाली भूमिका बाँध चुके हैं. दोनों एकसाथ भी नहीं आ सकते, क्योंकि नेतृत्व और वर्चस्व की चाहत आड़े आ जाएगी.

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि इस चुनाव-परिणाम ने तेजस्वी को सत्ता-प्राप्ति के बिल्कुल क़रीब ले जाकर मौक़ा चूक जाने का सदमा तो दिया है, लेकिन उनके लिए अवसर ख़त्म हो गए हैं, ऐसा भी नहीं है. इसी में उनके लिए संभावना भी छिपी हो सकती है.